Monday, January 2, 2012

तीन प्रकार की विद्याएँ

तीन प्रकार की विद्याएँ

तीन प्रकार की विद्याएँ होती हैं-
1.      लौकिक विद्याः जिसे हम स्कूल कालेज में पढ़ते हैं। यह विद्या केवल पेट भरने की विद्या है।
2.      योगविद्याः इस लोक और परलोक के रहस्य जानने कि विद्या।
3.      आत्मविद्याः आत्मा-परमात्मा की विद्या, परमात्मा के साक्षात्कार की विद्या, परमात्मा के साथ  एकता की विद्या।
लौकिक विद्या शारीरिक सुविधा के उपयोग में आती है। योगविद्या से इस लोक एवं परलोक के रहस्य खुलने लगते हैं एवं आत्मविद्या से परमात्मा के साथ एकता हो जाती है। जीवन में इन तीनों ही विद्याओं की प्राप्ति होनी चाहिए। लौकिक विद्या प्राप्त कर ली, किन्तु योगविद्या नहीं है तो जीवन में लौकिक चीजें बहुत मिलेंगी किन्तु भीतर शांति नहीं होगी। अशांति होगी, दुराचार होगा। लौकिक विद्या को पाकर थोड़ा कुछ सीख लिया, यहाँ तक कि बम बनाना सीख गये, फिर भी हृदय में अशांति की आग जलती रहेगी। अतः लौकिक विद्या के साथ आत्मविद्या अत्यावश्यक है।
जो लोग योगविद्या एवं आत्मविद्या का अभ्यास करते हैं, सुबह के समय थोड़ा योग का अभ्यास करते हैं, वे लोग लौकिक विद्या में भी शीघ्रता से सफल होते हैं। योग विद्या एवं ब्रह्मविद्या का थोड़ा सा अभ्यास करें तो लौकिक विद्या उनको आसानी से आ जाती है। लौकिक विद्या के अच्छे-अच्छे रहस्य वे लोग खोज सकते हैं।
जो वैज्ञानिक हैं वे भी जाने-अनजाने थोड़ा योगविद्या की शरण जाते हैं। रीसर्च करते-करते एकाग्र हो जाते हैं, तन्मय हो जाते हैं, तब कोई रहस्य उनके हाथ लगता है। वे ही वैज्ञानिक अगर योगी होकर रीसर्च करें तो आध्यात्मिक रहस्य उनके हाथ लग सकते है। योगियों ने ऐसे-ऐसे रीसर्च कर रखे हैं जिनका बयान करना भी आज के आदमी के वश की बात नहीं है।
नाभि केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित किया जाये तो शरीर की सम्पूर्ण रचना ज्यों की त्यों दिखती है। योगियों ने शरीर को काटकूट कर (ऑपरेशन करके) भीतर नहीं देखा। वरन् उन्होंने स्थूल भौतिक शरीर को भी ध्यान की विधि से जाना है। यदि नाभि केन्द्र पर ध्यान स्थित करो तो तुम्हारे शरीर की छोटी-मोटी सब नाड़ियों की अदभुत रचना का पता चलेगा। योगियों ने ही खोज करके बताया है कि नाभि से कन्धे तक 72664 नाड़ियाँ हैं। ऐहिक विद्या से जिन केन्द्रों के दर्शन नहीं होते उन मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य, आज्ञा और सहस्रार चक्रों की खोज योगविद्या द्वारा ही हुई है। एक-एक चक्र की क्या-क्या विशेषताएँ हैं यह भी योगविद्या से ही खोजा गया है। उन चक्रों का रूपान्तर कैसे किया जाये यह भी योगविद्या के द्वारा ही जाना गया है।
यदि मूलाधार केन्द्र का रूपान्तरण होता है तो काम, राम में बदल जाता है। व्यक्ति की दृष्टि विशाल हो जाती है। उसके कार्य 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' होने लगते हैं। ऐसा व्यक्ति यशस्वी हो जाता है। उसके पदचिह्नों पर चलने के लिए कई लोग तैयार होते हैं। जैसे – महात्मा गाँधी का काम केन्द्र राम में रूपान्तरित हुआ तो वे विश्वविख्यात हो गये।
दूसरा केन्द्र है स्वाधिष्ठान। उसमें भय, घृणा, हिंसा और स्पर्धा रहती है। यह दूसरा केन्द्र यदि रूपान्तरित होता है तो भय की जगह पर निर्भयता का, हिंसा की जगह अहिंसा का, घृणा की जगह प्रेम का और स्पर्धा की जगह समता का जन्म होता है। व्यक्ति दूसरों के लिए बड़ा प्यारा हो जाता है। अपने लिए एवं औरों के लिए बड़े काम का हो जाता है।
अपने शरीर में ऐसे सात केन्द्र हैं। इसकी खोज योगविद्या द्वारा ही हुई है। लौकिक विद्या ने इन केन्द्रों की खोज नहीं की। ऐसे ही, सृष्टि का आधार क्या है ? सृष्टिकर्त्ता से कैसे मिलें ? जीते जी मुक्ति का अनुभव कैसे हो ? यह खोज ब्रह्मविद्या के द्वारा ही हुई है।
लौकिक विद्या, योगविद्या और ब्रह्मविद्या। हम लोग लौकिक विद्या में तो थोड़ा-बहुत आगे बढ़ गये हैं लेकिन योग विद्या का ज्ञान नहीं है अतः व्यक्ति का शरीर जितना तंदुरूस्त होना चाहिए और मन जितना प्रसन्न एवं समझयुक्त होना चाहिए, वह नहीं है। इसीलिये चलचित्र देखकर कई ग्रेज्युएट व्यक्ति तक आत्महत्या कर लेते हैं। 'मरते हैं एक दूजे के लिए' फिल्म देखकर कई युवान-युवतियों ने आत्महत्या कर ली।
ऐहिक या लौकिक विद्या के साथ योग विद्या का सहारा नहीं है तो लौकिक विद्यावाला भी करप्शन (भ्रष्टाचार) करेगा। लड़ाई-झगड़े करके पेटपालु कुत्तों की नाई अपना जीवन बिताएगा। ऐहिक विद्या की यह एक बड़ी लाचारी है कि उसके होने के बावजूद भी जीवन में कोई सुख-शांति नहीं होती, शरीर का स्वास्थ्य और मन की दृढ़ता नहीं होती। आजकल की ऐहिक विद्या ऐसी हो गयी है कि विद्यार्थी गुलाम होकर ही युनिवर्सिटी से निकलते हैं। सर्टिफिकेट मिलने के बाद सर्विस की खोज में लगे रहते हैं। सर्विस मिलने पर कहते हैं-
'I am the best servant of Indian Government..... I am the best servant of British Government.'
आजकल की विद्या मनुष्य को Servant (नौकर) बनाती है। इन्द्रियों एवं मन का गुलाम बनाती है। ऐहिक विद्या मनुष्य को अहंकार का गुलाम बनाती है। ऐहिक विद्या मनुष्य को ईर्ष्या और स्पर्धा से नहीं छुड़ाती, काम-क्रोध की चोटों से नहीं बचाती। ऐहिक विद्या इन्सान को लोक-लोकान्तर की गतिविधियों का ज्ञान नहीं कराती। ऐहिक विद्या आदमी को पेट पालने के साधन प्रदान करती है, शरीर की सुविधाएँ बढ़ाने में मदद करती है। मनुष्य शरीर की सुविधाओं का जितना अधिक उपयोग करता है उतनी ही लाचारी उसके चित्त में घुस जाती है। शारीरिक सुविधाएँ जितनी भोगी जाती हैं और योगविद्या की तरफ जितनी लापरवाही बर्ती जाती है उतना ही मनुष्य अशांत होता जाता है। पाश्चात्य जगत् ने ऐहिक विद्या में, तकनीक के जगत में खूब तरक्की की किन्तु साथ ही साथ अशान्ति भी उतनी ही बढ़ी।
ऐहिक विद्या में अगर योग का संपुट दिया जाये तो मनुष्य ओजस्वी तेजस्वी बनता है। ऐहिक विद्या का आदर करना चाहिए किन्तु योगविद्या और आत्मविद्या को भूलकर ऐहिक विद्या में ही पूरी तरह से लिप्त हो जाना मानो अपने ही जीवन का अनादर करना है। जिसने अपने जीवन का ही अनादर कर दिया वह जीवनदाता का आदर कैसे कर सकता है ? जो अपने जीवन का एवं जीवनदाता का आदर नहीं कर सकता वह पूर्ण सुखी भी कैसे रह सकता है ?
ऑटोरिक्शा में तीन पहिये होते हैं। आगेवाला पहिया ठीक है, पीछे एक पहिया नहीं है और आगे वाला स्टीयरिंग नहीं है तो ऑटोरिक्शे की बॉडी (ढाँचा) दिखेगी, लेकिन उससे यात्रा नहीं होगी। ऐसे ही जीवन में ऐहिक विद्या तो हो, लेकिन उसके साथ योगविद्यारूपी पहिया न हो और ब्रह्मविद्यारूपी स्टीयरिंग न हो तो फिर मनुष्य अविद्या में ही उत्पन्न होकर, अविद्या में ही जीकर, अंत में अविद्या में ही मर जाता है। जैसे व्हील और स्टीयरिंग रहित ऑटोरिक्शा वहीं का वहीं पड़ा रहता है वैसे ही मनुष्य अविद्या में ही पड़ा रह जाता है, माया में ही पड़ा रह जाता है। माताओं के गर्भों में उल्टा लटकता ही रहता है, जन्म मरण के चक्र में फँसता ही रहता है क्योंकि ऐहिक विद्या के साथ-साथ ब्रह्मविद्या और योग विद्या नहीं मिली।
ऐहिक विद्या को पाने का तो एक निश्चित समय होता है किन्तु योग विद्या को, ब्रह्मविद्या को पाने के लिए दस-पन्द्रह या बीस वर्ष की अवधि नहीं होती। ऐहिक विद्या के साथ-साथ योगविद्या और ब्रह्मविद्या चलनी ही चाहिए। यदि मनुष्य प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में (साढ़े तीन बजे) उठकर योगविद्या का, ध्यान का अभ्यास करे तो उस समय कया हुआ ध्यान बहुत लाभ करता है।
जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में जाग जाते हैं वे बड़े तेजस्वी होते हैं। जीवन की शक्तियाँ ह्रास होने का और स्वप्नदोष होने का समय प्रायः ब्रह्ममुहूर्त के बाद का ही होता है। जो ब्रह्ममुहूर्त में जाग जाता है उसके ओज की रक्षा होती है। जो ब्रह्ममुहूर्त में जगकर ध्यान के अभ्यास में संलग्न हो जाता है उसको जल्दी ध्यान लग जाता है। जिसका ध्यान लगने लगता है उसके बल, ओज, बुद्धि एवं योगसामर्थ्य बढ़ते हैं और आत्मज्ञान का मार्ग उसके लिए खुला हो जाता है।
सूर्योदय से दो पाँच मिनट पहले और दो पाँच मिनट बाद का समय संधिकाल है। इस समय एकाग्र होने में बड़ी मदद मिलती है। यदि ब्रह्ममुहूर्त में उठकर ध्यान करे, सूर्योदय के समय ध्यान करे, ब्रह्मविद्या का अभ्यास करे तो.... शिक्षकों से थोड़ी लौकिक विद्या तो सीखे किन्तु दूसरी विद्या उसके अंदर से ही प्रगट होने लगेगी। जो योगविद्या और ब्रह्मविद्या में आगे बढ़ते हैं उनको लौकिक विद्या बड़ी आसानी से प्राप्त होती है।
संत तुकाराम लौकिक विद्या पढ़ने में इतना समय न दे सके थे किन्तु उनके द्वारा गाये गये अभंग बम्बई यूनिवर्सिटी के एम. ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाये जाते हैं।
संत एकनाथजी लौकिक विद्या भी पढ़े थे, योगविद्या भी पढ़े थे। विवेकानंद लौकिक विद्या पढ़े थे, योगविद्या भी पढ़े थे। उन्होंने आत्मविद्या का ज्ञान भी प्राप्त किया था। जो लौकिक विद्या सीखा है और उसे योगविद्या मिल जाये तो उसके जीवन में चार चाँद लग जाते हैं। उसके द्वारा बहुतों का हित हो सकता है।
योगविद्या एक बलप्रद विद्या है। वह बल अहंकार बढ़ाने वाला नहीं, वरन् जीवन के वास्तविक रहस्यों को प्रगटाने वाला और सदा सुखी रहने के काम आने वाला है। अगर मनुष्य के पास योग बल नहीं है तो फिर उसके पास धनबल, सत्ताबल और बाहुबल हो तो भी वह उस बल का क्या कर डाले ? कोई पता नहीं। सत्ता और धन का कैसा उपयोग करे ? कोई पता नहीं। जीवन में यदि योगविद्या और ब्रह्मविद्या साथ में हो तो...... भगवान राम के पास लौकिक विद्या के साथ योगविद्या और ब्रह्मविद्या थी तो हजारों विघ्न-बाधाओं के बीच भी उनका जीवन बड़ी शांति, बड़े आनंद और बड़े सुख से बीता, बड़ी समता से व्यतीत हुआ। श्रीकृष्ण के जीवन में लौकिक विद्या, योगविद्या और ब्रह्मविद्या तीनों थीं। उनके जीवन में भी हजारों विघ्न-बाधाएँ आयीं लेकिन वे सदा मुस्कुराते रहे।
जितने अंश में योगविद्या और ब्रह्मविद्या है, उतने अंश में ऐहिक विद्या भी शोभा देती है। किन्तु केवल लौकिक विद्या है, योगविद्या और ब्रह्मविद्या नहीं है तो फिर ऐहिक विद्या के प्रमाणपत्र मिल जाते हैं। उसे कुछ धन या कुछ सत्ता मिल जाती है किन्तु गहराई से देखो त भीतर धुंधलापन ही रहता है। भीतर कोई तसल्ली नहीं रहती, कोई तृप्ति नहीं रहती, कोई शांति नहीं रहती। भविष्य कैसा होगा ? कोई पता नहीं। आत्मा क्या है ? कोई पता नहीं। मोक्ष क्या है ? कोई पता नहीं। जीवन अज्ञान में ही बीत जाता है।
अज्ञान में जो ज्ञान होता है वह भी अज्ञान का रूपान्तर होता है। जैसे, रस्सी में साँप दिखा तो कोई बोलता है - 'यह साँप है।' दूसरा बोलता है - 'यह साँप नहीं यह तो दरार है।' तीसरा बोलता है - 'यह दरार नहीं, यह तो पानी का बहाव है।' चौथा बोलता है - 'यह मरा हुआ साँप है।' कोई बोलता है - 'अच्छा, जाऊँ, जरा देखूँ।' वह जाता तो है किन्तु दोनों तरफ भागने की जगह खोजता है। अज्ञान में ज्ञान हुआ है। रस्सी में साँप का ज्ञान हुआ है। ऐहिक विद्या अविद्या में ही मिलती है। अज्ञान दशा में ही ऐहिक शिक्षा का समावेश होता है।
आत्मा का ज्ञान नहीं है। आत्मा-परमात्मा क्या है ? उसका ज्ञान नहीं है और हम लौकिक शिक्षा पाते हैं तो अज्ञान दशा में जो कुछ जाना जाता है, वह अज्ञान के अन्तर्गत ही होता है। हकीकत में जानकारी मिलती है बुद्धि को और समझते हैं कि हम जानते हैं। हम डॉक्टर हो गये तो बुद्धि तक, वकील हो गये तो बुद्धि तक, उद्योगपति हो गये तो बुद्धि तक। लेकिन बुद्धि के पार की जो विद्या है वह है ब्रह्मविद्या।
जहाँ से विश्व की तमाम बुद्धियों को, दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों की बुद्धियों को, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की, साधु-संतों की बुद्धियों को प्रकाश मिलता है उस प्रकाश के ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं। जहाँ से विश्व को अनादिकाल से ज्ञान मिलता आ रहा है.... चतुरों की चतुराई, विद्वानों की विद्या संभालने की योग्यता, प्रेम, आनंद, साहस, निर्भयता, शक्ति, सफलता, इस लोक और परलोक के रहस्यों का उदघाटन करने की क्षमता..... ये सब जहाँ से मिलता आया है, मिल रहा है और मिलता रहेगा एवं एक तृण जितनी भी जिसमें कमी नहीं हुई, उसे कहते हैं ब्रह्म परमात्मा। ब्रह्म-परमात्मा को, आत्मा को जानने की विद्या को ही ब्रह्मविद्या कहते हैं।
ब्रह्मविद्या ब्रह्ममुहूर्त में बड़ी आसानी से फलती है। उस समय ध्यान करने से, ब्रह्मविद्या का अभ्यास करने से, मनुष्य बड़ी आसानी से प्रगति कर सकता है। सुबह का समय ध्यान का समय है। व्यक्ति जितने अंश में ध्यान में सफल होता है उतनी ही लौकिक विद्या में भी अच्छी प्रगति कर सकता है।
लौकिक विद्या तो जरूर पढ़ो, किन्तु साथ ही साथ योग विद्या और आत्मविद्या का अभ्यास भी करोगे तो जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकोगे। फिर महान् बनना तुम्हारे लिए अत्यंत सहज एवं सरल हो जायेगा।

'परिप्रश्नेन.....'

पूज्य गुरूदेव के श्रीचरणों में साधकों द्वारा पूछे गये प्रश्न
साधकः स्वामी जी ! परमात्माप्राप्ति के, तत्त्वज्ञानप्राप्ति के अभिलाषी साधकों को कैसा जीवन जीना चाहिए ?
पू. बापूः जिन्हें इसी जन्म में परमात्मा का साक्षात्कार करना है, उन्हें वशिष्ठजी के मतानुसार दिन के दो भाग कर लेने चाहिए। एक भाग अर्थात् 12 घंटे खाने, सोने इत्यादि के लिये तथा दूसरा भाग (12 घंटे) ईश्वरप्राप्ति में लगा देना चाहिए।
12 घंटे में चार प्रहर होते हैं। इनमें से एक प्रहर प्रणव का जप करें, एक प्रहर परमात्मा का ध्यान करें, एक प्रहर योगवाशिष्ठ जैसे महाग्रन्थ का स्वाध्याय करें तथा एक प्रहर सदगुरू क सेवाकार्यों में संलग्न रहे। आधी अविद्या तो इससे ही कट जायेगी। यहाँ तक पहुँच गये और तीव्र जिज्ञासा हो तो खान-पान के लिए कमाने में समय न गँवायें। आजीविका तो स्वतः मिलेगी।
शेष 12 घंटों में से छः घंटे शयन करें और शेष छः घंटे अपने अन्य कार्यों में लगा दें।
इस प्रकार जीवन की व्यवस्था की जाय तो इसी जन्म में तत्त्वज्ञान हो जायेगा।
साधकः स्वामी जी ! हर किसी का मन भगवान में क्यों नहीं लगता है ?
पू. बापूः हर किसी के पास इतना पुण्य नहीं है, इतनी समझ नहीं है इसलिए हर किसी आदमी का मन भगवान में नहीं लगता लेकिन प्रत्येक का मन देर-सबेर भगवान में लगेगा ही। इस जन्म में नहीं लगा तो ठोकरें खाते-खाते अगले जन्मों में लगेगा लेकिन लगेगा सही, ऐसी ईश्वर की व्यवस्था है।
ईश्वर के सिवाय कहीं भी मन लगाया तो वहाँ से फिर दुःख ही मिलता है। इन्सान अन्य सहारे तलाशता है लेकि जब वे भी छूट जाते हैं तो आखिरी सहारा ढूँढते-ढूँढते ईश्वर के सहारे आना ही पड़ता है... फिर चाहे आर्तभाव से आवे, अर्थार्थी भाव से आवे या जिज्ञासु भाव से आवे। उसको आना ही पड़ता है। सीधे-अनसीधे ईश्वर के रास्ते जाने के सिवाय अन्य कोई रास्ता ही नहीं है।
नान्या पंथा विद्यते अयनाय।
पूर्व के पाप जोर करते हैं तो ईश्वर में मन नहीं लगता, वासना का जोर होता है, अहंकार का जोर होता है तथा भौतिक वस्तुओं में आस्था होती है इसलिए ईश्वर में मन नहीं लगता। उन भौतिक सुखों में जब उपद्रव होते है तो मजबूर होकर भी यह स्वीकारना पड़ता है कि इनके अतिरिक्त भी ईश्वर की कोई सत्ता है।
गजेन्द्र जब अपने परिवार में, अपने सुख में मस्त था तब कुछ नहीं, लेकिन जब उसे ग्राह ने पकड़ा और देखा कि अब अपने बल से कुछ नहीं होगा तो सीधा ही अदृष्ट सत्ता की शरण में गया कि 'जो भी कोई सृष्टिकर्त्ता हों, मैं उनकी शरण में हूँ, वे मुझे बचाने की कृपा करें।' तब उसे भगवान आदिनारायण की कृपा का एहसास हुआ।
तुलसी पूर्व के पाप से, हरिचर्चा न सुहाए।
जैसे ज्वर के जोर से, भूख विदा न हो जाय।।
हर किसी का मन भगवान में नहीं लगता क्योंकि पापवासना का जोर होता है। पापवासना के अनुकूल चीज मिलती है तो मोह होता है एवं प्रतिकूल मिलती है तो द्वेष होता  है। मोह और द्वेष से आदमी संसार में फँसता है और परमात्मा से विमुख हो जाता है।
साधकः हे गुरूदेव ! संसार में सर्वत्र दुःख, अशांति और तनाव क्यों है ?
पू. बापूः दुःख, अशांति और तनाव सर्वत्र नहीं है। जो संसार के रास्ते जाते हैं, उन्हें दुःख, अशांति और तनाव होता है लेकिन जो ज्ञानवानों के दिखलाये मार्ग का अनुसरण करते हैं वे दुःख, अशांति और तनाव के वातावरण में भी सुख, शांति और आनंद का अनुभव करते हैं।
दुःख और अशांति से पीड़ितों का बहुमत हो सकता है। जो गल्ती करते हैं वे दुःखी अशान्त हो सकते हैं किन्तु जो गल्तियों से पार हो गये हैं, उनके पास दुःख और अशान्ति नहीं है।
दुःख, अशांति और तनाव का कारण है बिना ब्रेक के गाड़ी भगाना। ड्राइविंग के दौरान एक्सीडेन्ट क्यों होता है ? इसलिए कि बिना ब्रेक के गाड़ी भगा रहे थे अथवा निर्णय लेने में कोई गड़बड़ी की इसलिए एक्सीडेन्ट होता है।
आपका जन्म दुःख, तनाव, अशांति और मुसीबत के लिये नहीं हुआ है। आप तो सुख, शांति, माधुर्य और मुक्ति के लिए धरती पर आये हैं, लेकिन उस माधुर्य, आनन्द और मुक्ति के दर्शन नहीं होते, परम शांति के दर्शन नहीं होते अपितु अशांति की ही वृद्धि होती है। क्यों ? क्योंकि हम अपने जीवन से संयम की ब्रेक खो बैठे हैं, सदाचार का स्टीयरिंग नहीं है, हमार सोचने का ढंग गलत हो गया।
पाश्चात्य प्रभाव से हम इतने आकर्षित हो गये हैं कि हम भी उनकी तरह ही बाहर के विषय-विकारों में सुख ढूँढने के लिए कूद पड़े हैं। आप भोजन, कपड़ा, मकान,  मोटर आदि वस्तुओं का उपयोग कर सकते हैं लेकिन उपयोग की जगह जब उपभोग आ जाता है, मजा लेने की वृत्ति बढ़ जाती है तो असंयम आ जाता है और संयमरूपी ब्रेक फेल हो जाने से गाड़ी गड्डे में गिर जाती है। .....तो मानना पड़ेगा कि आज जो अशांति, तनाव व दुःख हैं, उसके पीछे सही समझ की कमी है और असंयम का बोलबाला है।
हर आदमी चाहता है कि अधिक से अधिक वस्तुएँ एकत्रित करूँ, अधिक से अधिक भोग भोगकर सुखी हो जाऊँ लेकिन वह औषधि की तरह इन्द्रियों का उपयोग करे तो मनुष्य जीवन स्वस्थ और सुखी रह सकता है। पति-पत्नी का व्यवहार संयमित रहे तो दोनों स्वस्थ रहते हैं लेकिन स्त्री पुरूष के शरीर से आये और पुरूष स्त्री के शरीर से उपभोग करके सुख लेने लगे इसलिए एड्स की बीमारी विदेशों में फैली और उसकी दुर्गन्ध अब यहाँ भारत में पहुँच गई है।
पाँच इन्द्रियाँ है – देखने, सुनने, सूँघने, चखने और स्पर्श करने की। यदि आँख का दुरूपयोग किया टी.वी., फिल्म आदि देखने में तो चश्मे जल्दी आने लगते हैं। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के द्वारा भी अतिभोग से स्वास्थ्य गिरने लगता है।
अति सर्वत्र वर्जयेत्।
अतः इन पाँचों इन्द्रियों का उपभोग नहीं, उपयोग करें और वह भी औषधि के समान। संसार में सर्वत्र दुःख, अशांति इसलिए है कि हम संयम-सदाचार भूलकर विषय-विकारों में फँसते चले गये। दवाई रोग मिटाने के लिए खायी जाती है ऐसे ही देखना, खाना-पीना आदि वासना मिटाने के लिये किया जाता है। यह सब वासना को बढ़ाने के लिए किया और वासना निवृत्त करने की बात भूल गये तो फिर अशांति और दुःख आयेंगे ही।
इन्द्रियों के विषयों में आज का इन्सान अति करने लगा है क्योंकि वह धर्म से दूर चला गया है। शास्त्र कहते हैं-
यतो धर्मस्ततो जयः ततो अभ्युदयः।
जहाँ धर्म है, वहाँ जय है और अभ्युदय (सुख-समृद्धि) है। धर्म का आशय यहाँ किसी मत, पंथ, मजहब या संप्रदाय से नहीं। संयम की विधि, स्वस्थ रहने की विधि, शांत और साहसी बनने की विधि तथा छुपी हुई चेतना जगाने की विधि जिसमें भरी है उसे धर्म कहते हैं।
धर्म जीवन में अनुशासन, साहस, शक्ति, सदाचार, संयम लाता है जिससे अशांति के स्थान पर शांति, दुःख के स्थान पर शाश्वत सुख तथा तनाव के स्थान पर आनंद की वृद्धि होती है, सर्वत्र सुख, शांति, आनंद व माधुर्य छा जाता है तथा देर-सबेर वह धर्म उपासना में एवं उपासना ज्ञान में परिवर्तित होकर जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार करा देता है।
साधकः बापू जी ! जीवन का वास्तविक विकास कैसे हो सकता है ?
पू. बापूः आप जिस शरीर को जीवन मानते हैं, वास्तव में वह शरीर आपका जीवन नहीं है, वह तो मुर्दा है क्योंकि वह नित्य मृत्यु की ओर जा रहा है। यह पहले आपके साथ नहीं था, बाद में भी नहीं रहेगा तथा अभी भी प्रतिदिन आपका साथ छोड़ता जा रहा है, शरीर के कण बदलते जा रहे हैं।
आपका वास्तविक जीवन तो जीवनदाता से जुड़ा है। बीजरूप में प्राणीमात्र के पास उस अनंत ब्रह्मांडनायक परमेश्वर की चेतना है, ज्ञान है। वह ज्ञान 'आँख देखती है कि नहीं' उसको भी देख रहा है तथा 'बुद्धि का निर्णय ठीक है कि नहीं' उसको भी देख रहा है। वह ईश्वर का ज्ञानस्वरूप, ईश्वर का सत्यस्वरूप और ईश्वर का चेतनस्वरूप, आपसे अभिन्न है और वही वास्तव में आपका जीवन है।
उसका विकास कैसे हो ? जैसे बीज को विकसित होने के लिए धरती चाहिए, हवा, पानी, खाद व सूर्य का प्रकाश चाहिए ऐसे ही वास्तविक जीवन के विकास के लिए धर्म, उपासना, सत्संग, ज्ञान, श्रद्धा, संयम, सदाचार आदि चाहिए।
साधकः गुरू बिना परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती है ऐसा सुना जाता है। भगवान तो सबके हैं और जो भी भगवान को पाना चाहे उसे भगवान मिल जाना चाहिए। फिर गुरू क्यों जरूरी हैं ?
पू. बापूः बात तो ठीक है लेकिन..... जैसे आटा पड़ा हो तो भी हर कोई रोटी नहीं बना सकता क्योंकि रोटी बनाने के लिए आटा गूंथने तथा रोटी बेलने, सेंकने की कला आनी चाहिये। यह कला भी किसी गुरू (माता, बहन या भाभी) से सीखी जाती है तो भगवान को पाने की कला सिखाने के लिये भी तो कोई गुरू चाहिए।
सहजो कारज संसार को गुरू बिन होत नाहीं।
हरि तो गुरू बिन क्या मिले सोच ले मन माहीं।।
सूर्य तो दिखता है लेकिन 'यह सूर्य है' ऐसा ज्ञान कराने वाला कोई था तभी आप सूर्य को सूर्य के रूप में पहचानते हैं। किसी ने बतलाया होगा तभी तो आपने जाना होगा कि 'यह चन्द्रमा है, ये तारे हैं।'
मनुष्य जीवन में जानने की क्षमता छुपी है इसीलिए बच्चों की जैसे-जैसे समझ निखरती है तो पूछता है कि 'यह क्या है.... वह क्या है....?' माता-पिता बतलाते हैं कि 'यह अमुक वस्तु है.... यह चिड़िया है..... यह कौआ है।' जब तक हमें चिड़िया-कौए का ज्ञान नहीं था, तब तक हम चिड़िया को चिड़िया कौए को कौआ नहीं बोल सकते थे। यह ज्ञान भी तो किसी ने दिया ही है ना !
ऐसे ही परमात्मा हमारे साथ है लेकिन अव्यक्त है। वह इन्द्रियों का, आँखों का विषय नहीं है। उपनिषद कहती हैः
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।
यह वाणी का विषय नहीं है। चिड़िया को आप वाणी से बता सकते हो या आँखों से दिखा सकते हो लेकिन भगवान को आप बतला या दिखला नहीं सकते कि 'यह रहा भगवान....।'
जैसे दूध में घी छुपा है ऐसे ही सारे ब्रह्मांड में सच्चिदानंद परमात्मा छुपा है। दूध में घी क्यों नहीं दिखता ? दूध को पहले गर्म करो, दही जमाओ, फिर बिलोओ, मक्खन निकालो और उसे गरम करो तब घी का साक्षात्कार होता है। ऐसे ही इस नश्वर देह एवं बदलने वाले संसार में भी अबदल और शाश्वत तत्त्व छुपा है। थोड़ा व्रत-नियम का तप करो, फिर थोड़ा जमाओ अर्थात् ध्यान करो और विचार करो कि 'ध्यान करने वाला कौन है ? जिसका ध्यान करते हो उस परमेश्वर का स्वरूप क्या है ?' तत्पश्चात् ज्ञानाग्नि से अपनी वासनाओं तथा कर्मों को जलाकर उस मक्खन में से घी निकालो।
ध्यान की एकाग्रता और संयम का जो दही जमाया और मक्खन निकला, उसे घी बनाने के लिए बाकी की विधि करो तो घी प्रकट हो जाता है। ईश्वर को कोई क्यों नहीं पा सकता है ? जैसे दूध में से घी बिना ज्ञान के नहीं बना सकते, कोई न कोई ज्ञान बताने वाला चाहिए। थोड़ी सी रसोई बनाने की कला बताने वाला कोई अनुभवी गुरू (माता आदि) चाहिए तो फिर परमात्मा का, जीवनदाता का ज्ञान बिना गुरू के कैसे संभव हो सकता है.....?
भगवान शंकर कहते है-
गुरू बिन भव निधि तरइ न कोई।
जौं बिरंचि संकर सम होई।।
अखंडानंद सरस्वती जी लिखते हैं कि जिसका गुरू नहीं है, उसका कोई सच्चा हितैषी भी नहीं है।
जिसका कोई गुरू नहीं, वह या तो मूर्ख है या घमंडी है, जिसका सिर कहीं झुकता नहीं है। भगवान श्रीराम के भी गुरू थे, श्रीकृष्ण के भी गुरू थे फिर भी पूछते  हैं कि गुरू के बिना भगवान क्यों नहीं मिलता।
अरे, भगवान तो मिला मिलाया है लेकिन गुरू मिलें तब तो इस बात का अनुभव होवे ना ! गुरू बनाये बिना इस प्रकार की यात्रा करना तो मानो 'बिना दही जमाये या बिना क्रीम निकाले घी क्यों नहीं मिलता ?' पूछने के समान है। गुरू की कृपा के बिना भगवान के स्वरूप का अनुभव नहीं होता।
यदि कोई कहे कि, "हम गुरू को नहीं मानते। हम तो 'सीताराम-सीताराम करेंगे... भगवान कृपा करेंगे।" भगवान सदा कृपा करें – यह भी अच्छा है किन्तु 'सीताराम-सीताराम' से भगवान कृपा करेंगे – यह भी तो किसी से तुमने सुना होगा ?
'सीता' और राम का अर्थ क्या है ? उनका स्वरूप क्या है ? यह बताने वाला भी तो कोई गुरू चाहिए... नहीं तो करते रहो 'सीताराम-सीताराम.....' कहाँ मना है ? 'सीताराम-सीताराम' करोगे तो देर-सबेर सीताराम की कृपा होगी ही और वे आत्मा होकर प्रेरणा करेंगे कि 'जा, किसी आत्मज्ञानी गुरू की शरण ले।' मुझे तो अपने साधनाकाल के दौरान अनेकों बार ऐसे अनुभव हुए थे।
जिस किसी ने भी ईमानदारी से भगवान की शरण ली है, वह देर-सबेर ब्रह्मवेत्ता सदगुरू के सान्निध्य में पहुँचा ही है। सनातन धर्म के पाँच भगवान हैं- सूर्य, गणपति, शिव, विष्णु (अथवा इनके अवतार) एवं भगवती जगदंबा। इन पाँच देवों में से किसी भी देव को इष्ट मानकर यदि किसी ने सच्चाई से भजन, पूजन या सेवा की है और उसकी पूजा फली है तो उन देवों की कृपा से उसकी अन्तरात्मा में प्रेरणा होगी कि सदगुरू के पास जाना चाहिए। यदि किसी ने नानक, कबीर जैसे महापुरूषों को मन ही मन गुरू मानकर भजन किया तो वे गुरू भी कृपा करेंगे और हृदय में किसी जीवित ब्रह्मज्ञानी गुरू का नाम स्फुरित करायेंगे कि 'जाओ ! अमुक गुरू के पास जाओ।'
अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिए गुरू की अनिवार्यता से इन्कार नहीं किया जा सकता है।
साधकः गुरूदेव ! मंत्रजाप करते समय मन इधर-उधर भटकता हो तो क्या करना चाहिए ?
पू. बापूः मंत्रजाप के समय मन भटकता है इसका कारण यह है कि मन में भगवान से भी अधिक किसी अन्य वस्तु के गहरे संस्कार पड़े हैं, जिसमें सत्यबुद्धि व प्रीति होने के कारण 'वह हमें मिले' इस भावना से मन भटकता है। यह पुरानी आदत सबमें घर कर बैठी है। इसे बदलना है तो प्रभु को अपना मानकर उससे स्नेह करें, जोर-जोर से नामोच्चार या मंत्रोच्चार करें, पंजों के बल थोड़ा कूदें अथवा कुछ गहरे श्वास लें और छोड़ें...... श्वास लें और छोड़ें.... तो इससे मन के भटकाव में फर्क पड़ेगा।
मंत्रजाप करते समय मन भटकाने लगे तो कभी-कभी जप छोड़कर मन को देखो और बोलोः
'जा बेटा ! कहाँ-कहाँ भटकता है.....' जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ उसे प्रभु की सत्ता का आभास कराओ।
मान लो मन एक घंटे में हजार बार भटकता है। आप यह अभ्यास करेंगे तो कुछ ही दिनों में आप देखेंगे कि उसका भटकना 150 बार हो गया... फिर 900..... 800.....700..... 600... 500 बार हो गया। एक दिन में ही तो मन एकाग्र नहीं होगा, उसकी भटकान बन्द नहीं होगी लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास करते रहें तो भटकान कम होती जायेगी।
दृढ़ संकल्प करो कि 'मन भटके तो भटके, मुझे तो नियम करना ही है।' गुरूदेव की तस्वीर की ओर, इष्टदेव की ओर निहारकर त्राटक करो, प्रार्थना करो, गुरूदेव के सत्संग का विचार करो। मन को भटकना है तो आत्मज्ञान के विचार में भटकाओ। 'भटकना ही है तो फिर जंगल में क्यों जायें, नन्दनवन में ही चलते हैं' ऐसा करके मन को आत्मविचार में लगा दो। 'सत्संग में यह सुना था.... वह सुना था....' इसमें मन को भटकाओ।
मन जब ज्ञान में भटकेगा तो अज्ञान की भटकान मिट जायेगी और ज्ञान तथा अज्ञान का जो साक्षी है उस परमात्मा में विश्रांति मिल जाएगी। एक बार मन को हरि का चस्का लग जाए तो उसकी भटकान कम हो जायेगी। इसीलिये 'ध्यान योग शिविर' भरने वाले साधकों को मन की एकाग्रता-वृद्धि में काफी लाभ होता है।
साधकः स्वामी जी ! ईश्वरप्राप्ति के मार्ग में विघ्न-बाधाएँ क्यों आती हैं ?
पू. बापूः अरे भैया ! बचपन में जब तुम स्कूल में दाखिल हुए थे तो 'क... ख... ग...' आदि का अक्षरज्ञान तुरन्त ही हो गया था कि विघ्न बाधाएँ आई थीं ? लकीरें सीधी खींचते थे कि कलम टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी ? जब साईकिल चलाना सीखा तब एकदम सीखे थे या इधर-उधर गिरकर सीखे थे ? अरे, जब चलना सीखा था तब भी तुम एकदम सीखे थे क्या ? नहीं। कई बार गिरे, कई बार उठे, चालनगाड़ी पकड़ी, अंगुली पकड़ी तब चलने के काबिल बने और अब तुम दौड़ सकते हो।
अब मेरा सवाल है कि जब तुम चलना सीखे तो विघ्न क्यों आये ? तुम्हारा जवाब होगा किः 'बाबाजी ! हम कमजोर थे, अभ्यास नहीं था।'
ऐसे ही ईश्वर के लिए भी तुम्हारा प्रेम कमजोर है और चलने का अभ्यास भी नहीं है, इसीलिए विघ्न आते और दिखते हैं। हालाँकि साधक तो विघ्न-बाधाओं से खेलकर मजबूत होता है।
बाधाएँ कब बाँध सकी हैं आगे बढ़ने वालों को।
विपदाएँ कब रोक सकी हैं पथ पर चलने वालों को।।
स्वामी रामतीर्थ कहते थेः "हे परमात्मा ! रोज ताजा मुसीबत भेजना।"
माता कुन्ती भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करतीं थीं-
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद् गुरो।
भक्तो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।
'हे जगद् गुरो ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें, क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आना पड़ता है।'
(श्रीमद् भागवतः 1.8.25)
एक बीज को वृक्ष बनने तक कितने विघ्न आते हैं ? कभी पानी मिला कभी नहीं मिला, कभी आँधी आई कभी तूफान आया, कभी पशु-पक्षियों ने मुँह-चोंचे मारीं.... ये सब सहते हुए भी वृक्ष खड़े हैं तो तुम भी सब सहन करते हुए ईश्वर के लिए खड़े हो जाओ तो तुम ब्रह्म हो जाओगे।
भले आज तूफान उठकर के आयें।
बला पर चली आ रही हो बलायें।।
भारत का वीर है दनदनाता चला जा।
कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा।।
साधकः हे गुरूदेव ! हमारा कल्याण कैसे होगा ?
पू. बापूः जीवन्मुक्त आत्मज्ञानी संतों की शरण जाने से, उनका संग करने से ही कल्याण होगा। जिसके पास जो चीज होती है, वह वही देता है। शराबी का संग शराबी, जुआरी का संग जुआरी, भंगेड़ी का संग भंगेड़ी बना देता है, ऐसे ही ईश्वरप्राप्त महापुरूषों या संतों का संग करोगे तो वह संग परम कल्याणस्वरूप की ओर ले जायेगा। उसी में तो कल्याण है।
श्रीमद् भागवत में राजा परीक्षित शुकदेव जी से पूछते हैं कि मनुष्य का कल्याण किसमें है ? शुकदेव जी कहते हैं-
तस्मात्सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान्नृणाम्।।
'हे परीक्षित ! इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि वे सब समय और सभी स्थितियों में अपनी सम्पूर्ण शक्ति से भगवान श्रीहरि का ही श्रवण-कीर्तन और स्मरण करें।' (2.2.36)
भगवत्स्वरूप का स्मरण करे, चिन्तन करे, कीर्तन करे – इसमें मनुष्य का कल्याण है। कीर्तन से, मंत्रजाप से तुम्हारे रक्त के कण बदलते हैं, रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है। शरीर तन्दुरूस्त और मन प्रसन्न रहेगा तो शराब-कबाब, परस्त्रीगमन आदि पापों की ओर प्रवृत्ति न होगी। संयम से रहोगे तो स्वस्थता, प्रसन्नता रहेगी और निजस्वरूप परमात्मा का ध्यान करोगे तो उससे बड़ा कल्याण क्या हो सकता है ?
धन मिलने से कल्याण होता तो सब धनवान सुखी हो जाते कुर्सी मिलने से कल्याण होता है तो कुर्सीवाले सब सुखी हो जाते और कुर्सी बिना कल्याण होता तो बिना कुर्सी वाले सब निश्चिन्त हो जाते।
कल्याण... कल्याण तो भाई ! कल्याणस्वरूप ईश्वर को पाये हुए संतों के संग से ही होता है।
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